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१० का नोट

असमंजस
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सर्दियों की कंपकपाती सुबह थी.रोज़ की तरह ऑफिस को लेट हो रहा था.अपनी टाई को ठीक करते हुए बस स्टॉप की तरफ तेजी से कदम बढ़ाने लगा.लेकिन जेसे जेसे बस स्टॉप नजदीक आ रहा था मेरे कदम धीमे होते चले गए.ये कोन बूढी औरत खड़ी है,कही ये वो तो नहीं….अरे हाँ ये तो वही है…..फटी हुई साड़ी,कांपते हुए हाथ और आँखों अनेक झुर्रियां..उसके हाथ मेरी और बढे “एक रूपया दे दो साब,भगवन आपका भला करे”.मेने उसकी और दस का नोट बढाया ही था उसने इतनी तेजी से उसको लपका जेसे में कहीं वापस ना ले लू.भगवान तुम्हारा भला करे कह कर वो दुसरे लोगो के पास चली गई…..

बस आ गई और में अपनी सीट पर बेठ गया.बेठे बेठे कब में १५ साल पीछे चला गया पता नहीं….मुझे आज भी याद है बचपन का वो दिन जब पिताजी रोज़ की तरह थके हारे ऑफिस से घर आये और में रोज़ की तरह उनकी साइकिल उठा कर घुमने निकल गया.साईकिल चलने का मज़ा तो ढलान में होता है…तेज़ रफ़्तार से मेरी साईकिल ढलान में लुडक रही थी की अचानक सामने से एक बड़ा सा ट्रक आया और में टकराते टकराते बचा..ट्रक वाला निकल गया लेकिन मेरा कलेजा मुहं को आ गया.खुद को सम्हालते हुए मेने अपने चारो और देखा किसी ने देखा तो नहीं…शुक्र है किसी ने नहीं देखा वरना कल से पापा साईकिल नहीं देते तभी एक औरत चिल्लाते हुए मेरे पास आई…पागल है क्या लड़के,मर जता अभी…किसका लड़का है तू ,रुक में तेरे घर पे बताती हू.मेने उस औरत को पहले कभी नहीं देखा था शायद मोहल्ले में नयी आई थी..उसने चिल्ला कर लोगो को इकठ्ठा कर लिया और मोहल्ले के बच्चे तो उसे मेरे घर तक ले आये.
उसने आते ही मेरे पिताजी पे चिल्लाना शुरू कर दिया…बच्चे पैदा कर के छोड़ देते है…आ गया था अभी ट्रक के नीचे,उपर वाले ने बचा लिया आज और बडबडाते हुए अपने घर चली गई.उसके जाने के बाद मेरी जो पिटाई हुई वो तो में भूल गया लेकिन उस दिन के बाद कभी पिताजी ने साईकिल चलाने को नहीं दी ,वो में नहीं भूल सका.
उस दिन से उस औरत से मुझे डर लगने लगा.कई दिनों तक तो उसने मुझे सपनो में डराया.पता किया तो पता चला मोहल्ले में किराये से रहने आई है अपने २०-२१ साल के लड़के के साथ.उसका लड़का था तो हमसे बहुत बड़ा लेकिन घर से बाहर उसको कम ही देखा,एक दो बार जरुर ऑटो रिक्शा में अपनी माँ के साथ कही जाते हुए दिखा था…मन में यही ख्याल आता था बहुत खतरनाक है भाई अपने लड़के को भी इतना डरा के रखा है की इतना बड़ा होकर भी कही नहीं जा पाता,ना पढाई करता है न नौकरी.
५-६ महीने बीत गए.एक दिन माँ मुझे स्कूल से लेकर आ रही थी तो देखा उसके घर के बाहर कुछ भीड़ लगी हुई है.समझ नहीं आया लेकिन माँ को कुछ समझ में आ रहा था, वो मुझे जल्दी जल्दी घर ले आई और मुझे छोड़ के उसी औरत के घर चली गई….वेसे तो में माँ के कही भी जाने पे साथ चलने की जिद करता था लेकिन उस दिन हिम्मत न हुई….लोगो को बात करते सुना कोई मर गया है…..मुझे लगा वो औरत मर गई…मेरा बालमन और डर गया कही भूत बन के तो नहीं डराएगी, रात को माँ पिताजी को बता रही थी “केंसर था उसके लड़के को…..बेचारी उसके इलाज के लिए अपनी जमीन बेच कर शहर में आई थी इलाज करवाने,लड़का को बच नहीं सका..जमीन जायदाद भी गई….पता नहीं क्या होगा अब बेचारी का….उसके गाँव के कुछ लोग आये थे जिनसे पता चला उसका पति बेटे के जनम के दो साल बाद ही चल बसा था…..पता नहीं अब क्या होगा उसका”.

उस रात मुझे नींद नहीं आई,बुढ़ापे की देहलीज पे खड़ी उस औरत का चेहरा बार बार मेरे सामने आ जाता….शायद इसलिए ही उसने उस दिन मुझे और मेरे पापा को इतनी जोर की फटकार लगाईं थी,अपने कलेजे के टुकड़े को खोने का दर्द शायद वो उसको खोने के पहले से ही महसूस कर रही थी..उस औरत ले लिए मेरे मन का डर उस दिन ख़त्म हुआ और मेरा मन उसके प्रति दया और श्रद्धा से भर गया…अगले दिन स्कूल जाते हुए उसको घर की सीढियों पे बैठे देखा….रो रो कर उसकी आंखें कुछ काली सी लग रही थी…काफी देर तक में पीछे मुड कर उसे देखता रहा फिर माँ के हाथ की पकड़ ने मुझे आगे खींच लिया.शाम को लौटते समय उसके घर पे ताला लगा हुआ देखा…३-४ दिन हो गए उसके घर का ताला नहीं खुला तो फिर मैंने अपनी माँ से पूछ लिया….माँ ने कहा बेटा वो आंटी अपने गाँव चली गई….कुछ दिनों बाद उस मकान में कोई और रहने आ गया.

लेकिन में उस औरत को कभी नहीं भूल पाया..जब भी चाँद पे चरखा कातती बूढी अम्मा की कहानी सुनता तो उसका ही चेहरा याद आता…प्रेमचंद की कहानियों में जब भी किसी बूढी औरत का ज़िक्र होता तो उसी का चेहरा याद आता….

“भैया आपका स्टॉप आ गया”-बस वाला बोला. ख्यालों से बाहर आया….ऑफिस न जा कर तुरंत ऑटो किया और उसी बस स्टॉप पे आ गया….लेकिन वो औरत नहीं दिखी….कई दिनों तक रोज उस स्टॉप पे कई बार गया पर उसका कुछ पता नहीं चला…..एक दिन रात को करीब ९-१० बजे कुछ भिखारी मुझे उस बस स्टॉप पे आग तापते दिखे,मैंने हिम्मत करके उनसे पुछा- क्यूं भाई यहाँ एक बूढी सी औरत भीख मांगती थी, कहा गई…उनमे से एक बोल -“अरे साब ये स्टॉप उस बुढिया का नहीं था जबरदस्ती आ जाती थी….हम उसे हमारे स्टॉप से भगा देते थे लेकिन फिर भी आ जाती थी…पर अभी कई दिनों से नहीं आई,लगता है…… इस बार की ठण्ड उसे लील गई.
मुझे काटो तो खून नहीं….कई प्रश्न मेरे दिमाग में तेजी से घूमने लगे…मानवीय संवेदना की पराकाष्ठा को उस दिन पहली बार मैंने महसूस किया. काश मेने उसे १० का नोट न देकर उसे आसरा दिया होता.

मेरी व्याकुल नज़रों को वो फिर कभी दिखाई नहीं दी…….शायद उस बार की ठण्ड सच में उसे लील गई.

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