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असमंजस

असमंजस
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असमंजस की स्थिति कई बार खुद निर्मित होती है,कई बार निर्मित की जाती है और कई बार हम समझ ही नहीं पाते की यह स्थिति असमंजस की है या फैसले की. असमंजस की स्थिति वह होती है जहां कई रस्ते होते हैं और हम फैसला नहीं कर पाते ,हम उस स्थिति को भी असमंजस कहते है जहां कोई रास्ता नहीं होता लेकिन फैसला जरूरी होता है.
यहाँ पर हम उन परिस्थितियों का विश्लेषण करेंगे जो हमारे आस पास घटित होती है और काफी सामान्य है , लेकिन उनके दूरगामी परिणामो में बहुत अंतर होता है.
सबसे पहले हम उदाहरण लेते हैं अजय और विजय का.वो दोनों एक ही क्लास में पढ़ते थे ,दोनों पढने में बहुत तेज़ थे और आपस में स्वस्थ प्रतिस्पर्धा रखते थे .अजय के पिताजी सरकारी बाबू थे जबकि विजय के पिताजी चपरासी .अजय के अभिभावक हमेशा उसे विजय का उदाहरण देते थे और अपने बेटे को विजय से कमतर आंकते थे,उनका सोचना था ऐसा करने से उनके बेटे में और प्रतिस्पर्धा आयेगी और वेह ज्यादा अच्छे अंक लायेगा लेकिन दूसरी और वह अपने बेटे को अजय के घर जाने से मना करते थे क्यों की वह चपरासी मकान मै रहता था.अजय के मन में यही से असमंजस शुरू हुआ जो की कई वर्षो तक चलता रहा. किशोरावस्था में आकर वह निर्णय लेने की स्थिति मे आया और उसने फैसला किया की वह चाहे जितने अच्छे अंक लाये उसके घर वाले उसको हमेशा विजय से कम ही आंकते हैं, तो क्यों न पढाई के अलावा जो ज़िन्दगी है,जिसे और भी लड़के जीते है, में भी जियूं.इतना त्याग करने से क्या मिल रहा है.उसने कुछ आवारा तो नहीं लेकिन पढाई के प्रति कम गंभीर लोगो से दोस्ती की और क्यों की वह स्मार्ट तो था ही इसलिए बहुत जल्दी लोगो को अपनी और आकर्षित कर लेता था.अब वह खुद को विजय से बेहतर समझने लगा और यह सिलसिला चलता रहा .इस दोरान विजय अच्छे अंक लाता रहा और अजय एक औंसत छात्र बन कर रह गया.विजय के अभिभावक उसे हमेशा श्रेष्ट करने के लिए प्रोत्साहित करते,ज़िन्दगी और ज़िन्दगी की परिस्थितियों के प्रति सकारात्मक रवैया कैसे रखा जाए यह उसको बचपन से सिखाया गया था.कम सुविधाओं में बेहतर प्रदर्शन कैसे हो विजय जान चुका था.आज कई वर्षो पश्चात् विजय और अजय की वार्षिक आय मै दस गुना का अंतर है और सामाजिक स्तर मै इस से कई गुना ज्यादा अंतर. इस अंतर की वजह शायद हम अजय के अभिभावकों को माने लेकिन इसकी वजह है किशोरावस्था मे अजय द्वारा लिया गया वह निर्णय जो उसने उस असमंजस की स्थिति में लिया था जो उसके परिवार द्वारा निर्मित की गई थी.
दूसरा उदाहरण हम लेते है अनिल का,जो एक शादीशुदा इंसान है.उसके घर मे माँ-बाप,बीवी.और एक छोटी सी बच्ची है.जब भी वह ऑफिस से घर अता तो कभी माँ का और कभी बीवी का मुह फूला रहता.वह हमेशा असमंजस में रहता किसका पक्ष ले और अगर किसी का पक्ष न भी ले तो इस समस्या का अंत कैसे हो.सब कुछ ठीक कैसे हो.उसके पास ऑफिस की भी बहुत टेंशन थी और वह घर में शांति चाहता था.इस असमंजस की स्थिति मे उसके पास दो रास्ते थे या तो वह ठान ले की वह सब कुछ ठीक करेगा और घर को टूटने से बचाएगा या फिर घर की परेशानियों से दूर भागे.उसने दूसरा रास्ता चुना. अब वह ऑफिस से सीधे घर नहीं शराब की दूकान पहुँचता था और आधी रात को शेर की तरह घर आता था. नशे में धुत अनिल के सामने न माँ कुछ कह पाती और ना बीवी और अगर कोई कुछ कहता भी था तो वह समझ नहीं पता था. इस तरह दिन बीतते गए और एक छोटी सी परेशानी से दूर भागने के चक्कर मे अनिल पारिवारिक जिम्मेदारियों से भी दूर होता गया. माँ-बाप तो एक दिन स्वर्ग सिधार गए लेकिन अब उसका और उसके परिवार का भविष्य वेसा नहीं होगा जैसा होना चाहिए था.
इस तरह के कई असमंजस हमारे सामने रोज़ आते है और हमारे द्वारा लिया गया निर्णय हमरी दशा और दिशा निर्धारित करता है,यकीन नहीं होता….
दरअसल बात यह है की हमारे लिए सही वह हे जो ज्यादा लोग करते हैं,सोचते हैं. अधिकतर लोगो द्वारा लिया गया निर्णय समाज की भेड़ चाल की देन होता है.समाज हम से ही मिलकर बनता है.हर इंसान खुद को समाज का हिस्सा समझता है लेकिन एक सुरक्षित दायरे में रहकर. प्राकृतिक सी लगने वाली कृत्रिम हंसी,प्राकृतिक से लगने वाले कृत्रिम बोल और प्राकृतिक से लगने वाले कृत्रिम लोग हमारी सामाजिकता को कम कर रहे है और बढ़ रहा है तो सिर्फ “असमंजस”.

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